भारतीय शास्त्रीय संगीत के मधुरतम सुरों में से एक पंडित जसराज का ९० वर्ष की आयु में कल निधन हो गया। जब मैंने शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया तब पंडित जसराज और पंडित भीमसेन जोशी ने पहली बार मुझे संगीत की अंतरतम गहराइयाँ की झलक दिखलाई। पंडित जसराज की ऊर्जा, जोश-औ-जुनून, ताने, खटके, मीड़, गमक, अहा! एक एक सुर रस से लबरेज़! उनके ख़्यालों से प्रस्फुटित भक्ति की फुहार!
राग दरबारी मेरा सबसे अज़ीज़ राग है। अपने उस्ताद चौबे जी के बाद, दरबारी का सौंदर्य पंडित जी से ही अनुभूत हुआ। आज भी जब कभी दरबारी सुनने की इच्छा होती, पंडित जी याद आते हैं।
पंडित जी के व्यक्तित्व की सादगी एवं विनम्रता बेजोड़ थी। एक बार की घटना है: एक संगीत कार्यक्रम में पंडित जी को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। उसके निर्णायक मंडल में आशा भोंसले जी भी थीं। प्रतिभागियों को राग जोग गाना था। पहले प्रतिभागी ने गाया, तो पंडित जी ने बड़ी सराहना की। लेकिन आशा जी को पंडित जी की प्रतिक्रिया पर थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि बच्चा राग निभा नहीं पाया था। उन्होंने कहा, "पंडित जी, क्या बच्चा सही में जोग गा पाया?" पंडित जी मुस्कुराकर बोले, "इस छोटी सी आयु में जोग क्या आनी है! लेकिन अच्छा प्रयास था। धीरे-धीरे सीख जाएगा।"
विनम्रता ही विद्वता की पहचान होती है। एक हम लोग हैं, दो अक्षर क्या जान लिए, पूरी दुनिया में अपने ज्ञान का डंका पीटने लगे। और दूसरों की ग़लतियों की निंदा, आलोचना, परिहास भी करने लगे।
पंडित जी ने अपना पूरा जीवन संगीत की सेवा में लगा दिया। उनके एक-एक रोम से संगीत गुंजरित होता था। वे एक ऐसी अनमोल विरासत छोड़कर गए हैं, जिसके लिए पूरा संगीत जगत उनका सदैव ऋणी रहेगा।